छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म और पॉक्सो का कानून!

हम आये दिन समाचारों में, टी.वी. में, न्यूज़ चैनलों में छोटी बच्चियों के साथ हो रहे दुष्कर्म की घटनाएं आये दिन पढ़ते और सुनते रहते हैं। पॉक्सो का कानून इन्हीं बच्चियों और बच्चों के, जो कि 18 वर्ष से कम की आयु के है, उन्हीं के संरक्षण के लिए बनाया गया है ताकि बच्चों के साथ हो रहे दुष्कर्म के मामलों पर लगाम कसी जा सके। इसीलिए ही इस कानून के अंतर्गत आजीवन कारावास और मृत्यु दण्ड तक की सजाओं का प्रावधान है।
गौरतलब है कि पॉक्सो के कानून के आने के पश्चात और उसमें वर्णित इतनी कठोर सजा के प्रावधानों के बावजूद भी देश में बच्चों के साथ हो रहे दुष्कर्म की घटनाओं पर ना तो लगाम ही कसी जा सकी है ना ही इनके आँकड़ो में कही कोई कमी आई है। ऐसा क्यों?
लेकिन पॉक्सो के कानून में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं दिया गया है जिसके अंतर्गत कि आरोपी का साइकोलॉजिकल स्तर पर मेडिकल जांच करवाई जाए।
सरकार और कानून की विफलता इसी बात से साबित हो जाती है कि मात्र कठोर कानून बना देने से और आजीवन कारावास या मृत्यु दण्ड का भय दिखाने के बावजूद भी सरकार नाबालिगों से दुष्कर्म के आँकड़ो को रोकना तो दूर, कम करने में भी विफल रही है।
किसी भी कानून को पारित करने से पूर्व यह विश्लेषण कर लेना भी आवश्यक है कि इसके नकारात्मक प्रभाव क्या पड़ सकते हैं, इसका दुरुपयोग क्या हो सकता है और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि किसी भी कानून को पारित करने से पूर्व अपराधी के मानसिकता को समझना अति आवश्यक है।
छोटे बच्चियों के साथ दुष्कर्म की घटना कारित करने वाले अधिकांश अपराधी मानसिक रूप से अस्वस्थ और रोगी होते हैं ऐसे में ऐसे लोग ऐसे जघन्य अपराध करने से पूर्व कुछ भी नहीं सोचते हैं क्योंकि वो सोचने की स्थिति में होते ही नहीं है।
अधिवक्ता रवि कांत अग्रवाल का कहना है कि कई ऐसे मामलों में मोटी रकम का लेनदेन कर न्यायालय के बाहर ही सेटलमेंट कर लिया जाता है और गवाहों को उन के बयानों से मुकरवा दिया जाता है। ऐसे में प्रश्न यह उत्तपन्न होता है कि क्या किसी की बच्ची के साथ ऐसा जघन्य अपराध हो और मामले को मोटी रकम लेकर रफा दफा कर दिया जाए, गले उतरने वाली बात नहीं लगती। तो क्या इसे इस कानून का दुरुपयोग समझा जाए?
अख़बारों व न्यूज़ चैनलों में आपने ऐसी बहुत सारी घटनाएं सुनी होगी, ज्यादातर मामलों में कोई परिचित या निकटतम रिश्तेदार ही आरोपी पाये जाते हैं।
जैसा कि पूर्व में ही लिखा जा चुका है कि ऐसे जघन्य अपराध करने वाले अपराधी बीमार और मनोरोगी होते हैं तो सजा के साथ हल यह भी होना चाहिए कि ऐसे रोगियों का ईलाज करवाया जाए। महिलावाद के इस युग मे पुरुषों के लिए किसी भी कानून में कोई संरक्षण नहीं है। असल में वास्तविकता कही यह तो नहीं कि अबला पुरूष और नारी उस पर भारी हैं?
अधिवक्ता रवि कांत अग्रवाल का कहना है कि वो किसी भी रूप में किसी भी प्रकार के अपराध को बढ़ावा देने के पक्ष में बिल्कुल भी नहीं है लेकिन इस प्रकार से हो रहे कानून के दुरूपयोगों का पूर्ण रूप से बहिष्कार करते हैं और उनका मत है कि ऐसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिए सरकार को ना सिर्फ ऐसे कानूनों की बल्कि अन्य विकल्पों को तलाशने की भी आवश्यकता है। केंद्र सकरार इन मानसिक रोगियों के लिए ऐसे कठोर कानून बनाये की आगे ऐसी घटनाएं पे शत प्रतिशत लगाम लागई जा सके ।
रवि कांत अग्रवाल
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