चिड़ियों की चहचहाहट के बिन सूना-सूना है बसंत-रेखा मिश्रा


हवा में कलाबाजियां करते पक्षियों की तस्वीरें मन को मोह लेती हैं। जब पक्षी उन्मुक्त भाव से कलरव कर रहे होते हैं तब हम बड़े मनोयोग से उनकी आपसी बतकही को समझने का प्रयास करते हैं। किसी खतरे अथवा आपसी लड़ाई-झगड़े के अलावा पक्षी केवल और केवल बसंत की ऋतु में ही अनावश्यक जोर-जोर से बतियाते देखे जा सकते हैं। बसंत प्रेम और उल्लास का अहसास है। साल भर का जो ऋतु चक्र होता है, बसंत उसी का नव यौवन स्वरूप है। बसंत प्रकृति का श्रृंगार करने आता है। बसंत के आगमन के साथ ही सृष्टि के समस्त जीवों में कई प्रकार के शारीरिक एवं भावनात्मक परिवर्तन नजर आते हैं। यह परिवर्तन सबसे ज्यादा पक्षियों में होते हैं। शीत के उतार के साथ उनकी आवाज अधिक मुखर और प्रणय-गीत अधिक असरदार होते जाते हैं। प्रायः बगीचे में कोयल की कुहुक को बसंत का शंखनाद माना जाता है। हमारे घरों के आंगन और छज्जों पर गौरैया की चहक इन्हीं दिनों कुछ जयादा बढ़ जाती है। दिनों दिन बढ़ते अंधाधुंध शहरीकरण और प्रकृति के साथ हो रहे अत्याचारों ने चिड़ियों को हमसे बहुत दूर कर दिया है, उनके गीतों की गूंज, उनका आपसी कलह शहरी लोगों के लिए किताबी अथवा फिल्मी मात्र बचा है। प्रकृति में हुए बदलाव ने पक्षियों के भीतर का राग ही नहीं, हम मनुष्यों के भीतर की कोमल प्रेममय भावनाएं भी छीन ली हैं। अब न मन में बसंत का उल्लास रहा और न तन के पोर-पोर से उठती मीठी कसक। यांत्रिक और संवेदना शून्य होते समाज में प्रेम जैसी नैसर्गिक, पवित्र भावना के लिए समय ही नहीं बचा है। सच तो यह है कि बसंत अब किताबों और यादों में ही बचा रह गया है। बसंत के मौसम में अब न प्रकृति का वह मादक रूप दिखता है और न रंगबिरंगे मासूम पक्षियों का वह प्रणय-गान ही सुनाई देता है। पक्षी प्रकृति के बैरोमीटर कहे जाते हैं। बसंत अपने पुराने अंदाज में तभी वापस लौटेगा जब प्रकृति अपने असली स्वरुप में लौटेगी। पृथ्वी को उसके वृक्षों की हरीतिमा वापस चाहिए, वो खुद ऐसा कर लेगी, हरियाली से भर जाएगी यदि हम मनुष्य अपने अतिक्रमण से बाज आएं। हमारी नदियाँ खुद निर्मल और अविरल हो जाऐंगी यदि हम उन्हें बांधे नहीं उन्मुक्त छोड़ दें, अपने हिस्से की गन्दगी नदियों में बहाना बंद कर दें। गांवों और शहरों को उनके जलाशय लौटा कर देखो, घर-आँगन और वन उपवन एक बार फिर रंग – बिरंगी चिड़ियों के प्रणय – गीतों से गुलजार होंगे। बसंत फिर से चहकेगा। कवि पद्माकर की लिखी यह पंक्तियां पुनः सार्थक हो उठेगी……..
“कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है,
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में
पानन में पीक में पलासन पगंत है“